पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/११

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बुद्ध और बौद्ध-धर्म (४)यथार्थ कार्य (५) यथार्थ जीवन (६) यथार्थ उद्योग (७) यथार्थ मनस्थिति (८) यथार्थ ध्यान । उसने कहा-हे भिक्षुओ! ये प्राचीन सिद्धान्त नहीं हैं। उसने काशी के उग्ग नामक मठ में बैठकर सत्य के राज्य के इस प्रधान पहिये को चला दिया, जो किसी ब्राह्मण के द्वारा, किसी भी देवता के द्वारा, या और किसी के द्वारा, कभी नहीं उलटाया जा सकता था। पाँचों शिष्यों ने इसके धर्म को स्वीकार किया, और वे ही इसके सबसे पहले शिष्य हुए। इसके पश्चात् काशी के प्रसिद्ध सेठ के पुत्र यश इसका गृहस्थ शिष्य हुआ। इसके तीन महल जाड़ा, गर्मी, वर्षा के लिए अलग थे। एक दिन, रात्रि को वह जग पड़ा और कमरे में उसने गायि- काओं को सोते हुए देखा । वे सब बेसुध पड़ी थीं। उनके कपड़े और गाने-बजाने का साज-सामान आदि भी अस्तव्यस्त पड़ा था। इस युवक ने, जो सुख के जीवन से तृप्त हो चुका था, जो-कुछ देखा, उससे इसे घृणा हुई और उसने गंभीरता से सोचते हुए कहा-शोक ! कैसा दुःख और कैसी विपत्ति है। और वह घर से बाहर चल दिया। प्रभात का समय था । गौतम ने उसे देखा वह इधर-उधर घूमकर वायु-सेवन कर रहा था। उसने उसे यह कहते हुए सुना- शोक ! कैसा दुःख और कैसी विपत्ति है !! उसने इससे कहा-हे यश! यहाँ आकर बैठो, मैं तुम्हें सत्य का मार्ग सिखाऊँगा।