सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४१ बौद्ध-काल का सामाजिक जीवन थे और यह वात बहुत महत्वपूर्ण समझी जाती थी । कष्ट-सहन का अभ्यास उनको इस कदर हो गया था कि वह भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी की कुछ पर्वाह नहीं करते थे। बुद्ध भी जब सत्य मार्ग की तलाश में चले, तब उन्होंने छः महीने तक कठिन तपस्या की थी और अन्त में उन्हें इसकी असा- रता मालूम हो गई। यज्ञ और योग इनके अलावा एक तीसरा मार्ग भी था, जो कि ज्ञानमार्ग कहलाता था । बहुत-से बैखानस भिक्षु तथा सन्यासी एक जगह से दूसरी जगह विचरा करते थे। उनके ठहरने के लिए बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार लोग नगरों से बाहर बड़े- बड़े मकान बनवा देते थे । पञ्चायती चन्दे से भी उनके लिए कुछ प्रबन्ध हुआ करता था । वह लोगों को दार्शनिक और धार्मिक विषयों पर व्याख्यान सुनाया करते थे । यदि कोई दूसरा परि- व्राजक वहाँ ठहरा हुआ होता तो उनसे शास्त्रार्थ छिड़ जाता था। उन लोगों में त्रियाँ भी थीं । प्रचलित संस्थाओं से उनका कोई क्रम नहीं था। वह लोग घर-बार, माता-पिता, धन-दौलत, स्त्री- पुत्र, कलत्र आदि सब-कुछ त्यागकर सन्यासी बन गये थे । वह लोग प्रचलित प्रणालियों और बुराइयों की खूब बुराइयाँ करते थे। और प्रचलित धर्मों के विश्वास की जड़ को खोखली कर देते थे। इस प्रकार उन परिव्राजकों ने जमीन तैयार कर दी थी, जिसपर वृद्ध ने तत्काल ही बीज बो दिया । ये लोग उपनिषा के तत्वों का मनन करते थे और इस बात पर विचार करते थे कि सब जीवित