१४६ बौद्ध-धर्म में स्त्रियों का स्थान दशा में रहने की इजाजत दे दी गई वह धर्म या मत अधिक समय तक नहीं ठहर सकता । निस्सन्देह यह बुद्ध का एक विवेचना पूर्ण सिद्धान्त था । लेकिन बुद्धधर्म के प्रचार में स्त्रियों ने जो त्याग और अध्यवसाय किया उसको देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। बुद्ध की मृत्यु के दो-तीन सौ वर्ष वाद सम्राट अशोकने बौद्ध-धर्म के प्रचार के लिए बहुत बड़े भारी काम किये। उन्होंने अपने पुत्र और पुत्री को लङ्का में भेजकर एक संघ की स्थापना की और वहाँ पुरुषों के साथ स्त्री मिनुणियों का भी एक छोटा-सा दल बनाया था। जब अशोक ने पाटलीपुत्र में वौद्धों की एक सभा की उस समय इस संघ के नियम और उपनियमों का संशोधन किया । जिसमें भिनु-भिक्षुणियाँ, गृहस्थ ये दोनों ही अंग धर्म की विशुद्ध आज्ञा को विपयंगम किया करते थे। यद्यपि बौद्धों का धर्म निरीश्वरवादी था, किन्तु आगे जाकर बौद्धों के धर्म के अन्दर देवों की पूजा का स्थान भी हो गया। बौद्धों ने कई मन्दिर बनवाये | लंका में बौद्धों की एक देवी का मन्दिर है जिसे पट्टनिका का मन्दिर कहते हैं। जव वौद्ध-धर्म का ह्रास हो रहा था। इस देवी पूजा का प्रभाव उत्तर कालीन बौद्ध चरित्र पर बहुत पड़ा है। और इस ही का यह कारण है कि बौद्ध षियों के अन्दर दया, क्षमा, त्याग और पादर के भाव बहुँत उच्च कोटि तक पहुँच गये हैं । आज ब्रह्मा के अन्दर स्त्रियों में त्याग और दया की भावनायें बहुत बढ़ी-चढ़ी देखी जाती
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