पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२३ बोद्धकाल का सामाजिक जीवन ऐसी विद्या थी, जिसे वे किसी वर्ग विशेष से गुप्त रखना चाहते हों । अतः उनके यहाँ सभी शिक्षा पाते रहे होंगे । पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि उन दिनों में भी ब्राह्मणों का बहुत कुछ आदर था, पर प्राधान्य बौद्धों का था; जैसा कि प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ डा० भाण्डारकर ने दिखलाया है। लगभग चारसौ वर्ष (युधिष्ठिराब्द २८८६० से ३२८८० तक) के बीच का एक भी ऐसा शिला-लेख, दान-पत्र या अन्य लेख नहीं मिलता, जिससे यह सिद्ध हो कि किसी नरेश या सेठ-साहूकार ने ब्राह्मणों का कोई गाँव, भूमि, विहार, भवन या धन आदि दिया हो, न कोई उस समय का वैदिक सभा-मण्डप या यज्ञ मण्डप मिलता है, न कोई देव-मन्दिर देख पड़ता है । यह प्रमाण पर्याप्त है। नालंद विश्वविद्यालय की नींव पड़ चुकी थी। कुछ सेठों ने उस स्थान में कुछ भूमि लेकर बुद्ध देव को अर्पित की थी। वहाँ साधु रहने लगे, और विद्यार्थी पढ़ाने लगे। क्रमशः बह विहार से विद्यापीठ बन गया। यहाँतक कि हर्षवर्धन के समय में वह केवल भारत ही नहीं, प्रत्युत सारी पृथ्वी में अप्रतिम विश्वविद्यालय हो गया । जिस संस्था में १०,००० मनुष्य न केवल निःशुल्क शिक्षा, वरन् अन्न-वस्त्र भी पाते हों, वह वस्तुतः असाधारण रही होगी। उसमें तत्कालीन जगत् की प्रायः सभी विद्याएँ पढ़ाई जाती थीं। अशोक के समय तक उसका ऐसा विकास नहीं हुआ था। परन्तु जो विद्यालय रहे होंगे, विशेषतः ब्राह्मणों के विद्यालय, उनका क्रम न्यूनाधिक यही रहा होगा । और, यह भी निश्चय है कि शास्त्रार्थ