२४५ दो अमर चीनी बौद्ध भिक्षु लंका में दो वर्ष तक रह कर फाहियान ने विनयपिटक और अन्य ग्रन्थों की, जो चीन में अब तक विदित नहीं थे-नकल की। एक अवसर पर एक व्यापारी ने बुद्ध की एक २२ फीट ऊँची स्त्र-जटित मूर्ति को एक चीनका बना हुआ पंखा भेंट किया । उसे देखकर फाहियान को अपनी मातृ-भूमि का स्मरण हो पाया, वह बहुत उदास हुआ और उसकी आँखों में आँसू आ गये । लंका से वह एक बड़े भारी जहाज में बैठकर अपने देश को रवाना हुआ। बीच में बड़ा भारी तूफान आना, और जहाज के व्यापारियों ने बहुत सा माल समुद्र में फेंक दिया । फाहियान ने भी अपना एक बड़ा और कटोरा समुद्र में फेंक दिया। उसे डर था कि कहीं व्यापारी उसके उन पवित्र ग्रन्थों और चित्रों को समुद्र में न फेंक दें जिनके लिए उसने इतने कष्ट सहे हैं। तेरह दिन बाद तूफान शान्त हुया और उन्होंने एक छोटे से टापू पर जहाज ठीक करके पुनः समुद्र में प्रस्थान किया। निरन्तर दिन की यात्रा के बाद जहाज जावा या सुमात्रा पहुँचा। वह लिखता ई-"इस देश में ब्राह्मण और नास्तिक अधिक रहते हैं।" काहियान पाँच मास जावा में ठहरकर एक दूसरे सौदागरी जहाज पर बैठकर अपने देश चीन को रवाना हुआ। बीच में फिर एक बड़ा जबरदस्त तूफान आ गया। इस पर उन मूर्ख ब्राह्मणों ने कहा कि इस सामन को (फाहियान को) बिठाने के कारण ही यह तूफान आया है और उन लोगों ने उसे बीच में ही उतार देने का निश्चय किया। पर फाहियान के संरक्षक ने बड़ी वीरता के
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