२४७ दो अमर चीनी बोद्ध-भिक्षु राज्य करते थे । गान्धार में इस समय बहुत कम आबादी रह गई थी। नगर में अन्न बहुतायत से पैदा होता था और प्रजा गरीबों पर प्रीति रखती थी। उस समय यहाँ एक हजार संघाराम और १०० मन्दिर उजाड़ और टूटी-फूटी दशा में पड़े थे।" गान्धार राज्य के वर्णन के सिलसिले में उसने एक विद्वान बौद्ध लेखक मनोहत के विषय में लिखा है-"मनोहत विक्रमा- दित्य की सभा में रहता था । विक्रमादित्य हिन्दु और हिन्दु विद्या का रक्षक था । एक दिन धर्म-सम्बन्धी वाद-विवाद पर सभा में मनोहत का अपमान हुआ और उसने यह कहते हुए उस सभा को छोड़ दिया कि-"पक्षपातियां के समूह में न्याय नहीं रहता " परन्तु विक्रमादित्य का उत्तराधिकारी शिलादित्य विद्वानों का संर- क्षक था उसने मनोहत के शिष्य वसुबन्धु का सत्कार किया। इससे सब दूसरे पण्डितों ने सभा को त्याग दिया ।" हुएनत्संग लिखता ई-"शीलादित्य मेरे समय से ६० अर्प पहले अर्थात सन ५८० ई. के लगभग हुआ था।" इससे विक्रमादित्य के राज्य का समय ५५० ई०के पहिले निश्चित होता है, और यह हमारे निश्चित किए हुए समय से मिलता है। हुएनत्संग पौलुस नगर के पास के एक ऊँचे पर्वत पर गया। वह लिखता है-यहाँ उसने नोले पत्थर को काटकर बनाई हुई भीम या दुर्गा की एक मूर्ति देखी। जिसके दर्शन करने दूर-दूर से 'यात्री आते थे। पर्वत के नीचे उसने एक महेश्वर का मन्दिर भी देखा जहाँ शरीर में राख लगाये हुये हिन्दु संन्यासी पाशुपत पूजा
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