२५५ दो अमर चीनी बौद्ध भिक्षु देशों के राजा जिन्हें शोलादित्य ने आज्ञा दी थी, अपने-अपने देश के प्रसिद्ध ,श्रमणों, ब्राह्मणों, प्रबन्धकर्ताओं तथा सैनिकों सहित वहाँ एकत्रित हुए । यह वास्तव में राजकीय धार्मिक समूह था। शीलादित्य ने गंगा के पश्चिमी ओर एक संधाराम और पूर्व की और एक १० फीट ऊँचा बुर्ज बनवाया और उसमें मनुष्याकार की एक बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति स्थापित की और उस मास की अर्थात् वसन्त ऋतु के तीन मास के पहली तिथि से २१ वी तिथि तक श्रमणों और ब्राह्मणों को समान रीति से भोजन कराता रहा । सद्धाराम से लेकर राजमहल तक सारा स्थान तम्बुओं और गाने वालों के खेमों से सज्जित था। बुद्ध की एक छोटी मूर्ति सजे हुए हाथी पर रक्खी जाती थी और शीलादित्य उस मूर्ति की बॉई ओर और कामरूप का राजा दाहिनी और पाँच-पाँचसौ युद्ध के हाथियों के साथ चलते थे। शीलादित्य चारों ओर मोती, सोना, चाँदी तथा फूल फेंकता जाता था।तव मूर्ति को स्नान कराकर स्वयं शीलादित्य उसे अपने कन्धे पर रखकर पश्चिम के धुर्ज पर ले जाता था और उसे रेशमी वस्त्र तथा रत्नजटित आभूषण पहिनाता था। भोजनादि के उपरान्त विद्वानों का शाखार्थ होता और फिर शाम के वक्त राजा अपने भवन में चलाजाता था। इस प्रकार नित्य-प्रति मूर्ति निकाली जाती थी। अन्त में समाप्ति के दिन बुर्ज में आग लग गई। हुएनत्संग तो इस घटना का इस प्रकार बयान करता है कि- "शीलादित्य को बौद्ध-धर्म में रत देखकर ब्राह्मणों ने बुर्ज में आग लगा दी और उसे मारने का प्रयत्न किया लेकिन हुएनत्संग एक
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