२६३ नालन्दा विश्वविद्यालय ज्योति को जागृत करना था। उसकी सफलता का परिचय उसके कुछ स्नातकों के नामोल्लेख ही से भली-भांति मिल सकता है। उन स्नातकों में धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति, चन्द्रपालादि ऐसे प्रगाढ़ पण्डित थे कि उनकी बुद्धि के चमत्कार तथा सदाचार से समस्त बौद्ध-संसार गौरवान्वित था। नालन्दा की कीर्ति यहाँ तक चतुर्दिक फैल गई थी कि जो कोई अपने को इसका स्नातक बताता वह सर्वत्र सम्मानास्पद समझा जाता था। हर्षवर्धन स्वयं कई प्रख्यात विद्वानों के संरक्षक थे। इस बात से भी हम जान सकते हैं कि साहित्य में उनकी कितनी अभिरुचि थी। उनकी सभा के मार्तण्ड 'वाणभट्ट थे, जिन्होंने अपने संरक्षक की प्रशस्ति में 'हर्पचरित्र' नामक ग्रन्थ लिखा है। वाणभट्ट रचित और भी कई ग्रन्थ हैं-चण्डी शतक, कादम्बरी और पार्वती-परि- णय । आश्चर्य की बात है कि कादम्बरी तथा हर्षचरित्र दोनों कथाओं को वाणभट्ट अपूर्ण छोड़ गये । पश्चात् वाणभट्ट के पुत्र भूपण भट्ट ने-जहाँ कादम्बरी के शोक का वर्णन करना है, वहाँ से लेकर अन्त तक इस कथा की समाप्ति की । भाग्यवश भूपण भट्ट भी एक उद्भट विद्वान था, इसलिये उत्तरार्द्ध की शैली और भापा पूर्वार्द्ध ही के अनुरूप है। वस्तुतः अनुकरण इतना उत्तम है कि दोनों एक ही लेखक के लिखे मालूम होते हैं। हर्प के साहित्य दल का दूसरा रहस्य मयूर कवि था । तत्का- लीन साहित्य भण्डार में सूर्यशतक, उसकी प्रधान कृति है। इस के पूर्व उसने "मयूरशतक" लिखा था। इन दोनों के क्रम सम्बन्ध
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