बुद्ध और बौद्ध-धम २६४ में एक जनोक्ति प्रसिद्ध है कि "मयूरशीतल" की रचना के पश्चात कवि को कुष्ठ व्याधि हो गई थी, और जब उसने सूर्यशतक बनाया तब रोग शान्त हो गया । मयूर कवि हर्प ही का सभासद था, इसकी पुष्टि "सारंगधर-पद्धति” तथा “सूक्तिमुक्तावली के इस पद्य से भी होती है-"अहो प्रभावो वाग्देव्या यन् मातङ्ग दिवाकरः, श्री हर्षस्याभवत् सभ्यः समोवाणमयूरयोः” अर्थात् श्री सरस्वती देवी की महिमा इतनी है कि दिवाकर नाम का अछूत भी वाण और मयूर के समान श्री हर्ष की सभा का सभासद हुआ। इस प्रसिद्ध श्लोक में "मातङ्ग दिवाकरण नाम के एक और कवि का उल्लेख है । खेद है कि इस विद्वान के सम्बन्ध में अभी तक कोई प्रकाश नहीं डाला गया, किन्तु साहित्य-गगन में इसकी ज्योति का इसीसे पता लग सकता है कि इसको हर्ष द्वारा पर्याप्त सम्मान और आदर प्राप्त हुआ था। हुएनत्संग ने तो लिखा है कि और भी कई राजाओं से आव- श्यक सामग्री तथा सहायता मिलती रही। बड़गाँव में मौखेरियों की दो मुद्रा मिली हैं। मौखारी राजा पूर्णवर्मा के सम्बन्ध में हुएनत्संग ने स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने नालन्दा में बुद्ध की एक खड़ी ताम्र-प्रतिमा बनवाई थी। जिसकी ऊँचाई ८० फीट थी और जिसके रखने के लिये ६ मंजिल ऊँचे भवन की आवश्यकता थी। इसी प्रकार हर्षवर्धन के अन्य मित्र राजाओं से सहायता मिलती थी।
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