पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२८५

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बुद्ध और बौद्ध धर्म २६८ सुदूरवर्ती देशों से आते थे । यही उन लोगों की प्रवेशिका परीक्षा थी। जो द्वार पण्डित के प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर न दे सकते थे उन्हें निराश होकर लौट जाना पड़ता था। इस परीक्षा में सफल होने के लिये प्राचीन और नवीन ग्रन्थों का मननशीलता पूर्वक अध्ययन करना आवश्यक था। नवागत विद्यार्थियों को कठिन शाखार्थ द्वारा अपनी योग्यता सिद्ध करनी पड़ती थी। यह परीक्षा इतनी कठिन थी कि इसमें ७ या प्रवेशार्थी असफल होकर लौट जाते थे। विक्रमशिला में भी यही प्रणाली थी। वहाँ ६ द्वार थे । सब पर एक-एक द्वार पण्डित थे। जो दो तीन सफल होते थे उनका भी सारा अभिमान विद्यालय के भीतर जाने पर चूर हो जाता था तारीफ तो यह कि द्वार परीक्षा की कठिनता होते हुए भी हुएनत्संग के समय में विद्यार्थियों की संख्या १०००० थी। लब्ध प्रतिष्ठ बौद्ध-भिक्षु उनके अध्यापक थे। शिक्षा पद्धति ठीक प्राचीन गुरुकुलों के ढंग की थी। छात्रों और अध्यापकों में बड़ा स्नेह था। छात्र बड़े गुरु भक्त थे। "तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया। इन तीनों के सुभग संमिश्रण से छात्रों का जीवन दीप्तिमान था। बौद्ध-धर्म ग्रन्थों के अतिरिक्त वेद, हेतुविद्या, शब्दविद्या, तन्त्र, साँख्य तथा अन्य विविध विषय भी पढ़ाये जाते थे। सर्वाङ्गणि शिक्षा के प्रभाव से, हुएनत्संग के समय में, एक सहस्त्र ऐसे विद्वान थे जो दस विषयों में निपुण थे। पाँच सौ ऐसे थे जो ३० विपयों में पण्डित थे, और १० ऐसे थे, जो ५० विपयों में पारंगत थे। ,