पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२८४

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२६७ नालन्दा विश्वविद्यालय जाते हैं । पर जो हो, हुएनत्संग के समय में नालन्दा का नाम दिग्- दिगन्त में व्याप्त हो गया था । इसकी उज्ज्वल कीति कौमुदी विश्व- विस्तृत हो चली थी। इसके यश सौरभ से आकृष्ट होकर ही सुद्र देशों से हजारों यात्री और विद्यार्थी यहाँ आते थे। उन दिनों रेल न थी। मार्ग में बीहड़-से-बीहड़ स्थल थे। डाकुयों और वन्य- जन्तुओं का भय था । इत्सिंग और हुएनत्संग के विवरणों को पढ़ने से यह पता लगता है कि कैसी-कैमी कठिनाइयों को पार करके वे यहाँ पहुँचे थे।वैसे दिनों में दारण कष्टों और विघ्नों का सामना करते हुए, विदेशियों के दल-के-दल का यहाँ आना नालन्दा की महत्ता का द्योतक है । उस महत्ता को सुरक्षित रखने का श्रेय चीनी यात्रियों को है, जिनक यात्रा-विवरण हमारे इतिहास के रत्न हैं। हुएनत्संग, इत्सिंग, कि-ई, बुर्कंग आदि की यात्रा वृतान्तों में हमें नालन्दा की शिक्षा पद्धति आदि का बड़ा ही रोचक विवरण मिलता है। प्रवेशिका परीक्षा और शिक्षा-पद्धति नालन्दा की शिक्षा-प्रणाली कितनी उच्च-कोटि की थी, इसका कुछ अनुमान हम हुएनत्संग के दिये हुए द्वार पण्डित से कर सकन हैं। हम कह चुके हैं कि विद्यालय के चारों ओर, मध्यभारत के किसी राजा की 'जो सम्भवतः हर्षवर्धन ही थे' बनवाई हुई, एक ऊँची प्राचीर थी। उसमें केवल एक ही द्वार था । उस द्वार पर एक प्रकाण्ड विद्वान द्वार पण्डित रहता था । वह उन नये विद्या- र्थियों की परीक्षा लेता था, जो विद्यालय में दाखिल होने के लिये -