३५ बुद्ध के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त सिद्धान्तों में कुछ खुलासा किया गया है। वहाँ बतलाया गया है कि मनुष्य के कर्म का नाश नहीं हो सफता, और उसका उचित फल अवश्य होता है । जब कोई जीवित मनुष्य मर जाता है तो उसके कर्म के अनुसार ही नय मनुष्य की उत्पत्ति होती है। उत्तरकालीन समस्त बौद्ध-अन्यकारों ने पुनर्जन्म के प्रश्न को एक दीपक की लौ से उदाहरण दिया है। जैसे कि एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है। यदि कोई निर्दोष मनुष्य इस संसार में दुःख पाता है तो वह कहता है कि यह मेरे कर्म का फल है, लेकिन यदि आत्मा नहीं है तो दुःख देनेवाले मनुष्य और दुःख पानेवाले मनुष्य में समता कौन-सी बात की रह गई ? इसका बुद्ध यह उत्तर देता है कि समता तो उसमें रहती है,जो मनुष्य के मर जाने और अणु के गल जाने के उपरान्त भी शेप रहता है अर्थात उसके कार्यों, विचारों और वाणी में, जो कभी नष्ट नहीं होते। यह तो निश्चित है कि बुद्ध ने पुनर्जन्म को प्राचीन हिन्दु धर्म से लेकर एक नये ढंग से अपने धर्म में ग्रहण किया है। उसने उस समय के हिन्दु देवताओं को भी प्रहण किया है। और उसके सिद्धान्त की जो मुख्य बात पवित्र जीवन थी, उसीके अनुसार उसने उनमें परिवर्तन किया है। उसने ऋग्वेद के तीनों देवताओं को माना है। परन्तु उन्हें सर्वप्रधान नहीं माना है। यह उपनिपदों के सर्वप्रधान देवता ब्रह्म को मानता है, किन्तु उसको प्रधान वस्तु नहीं स्वीकार करता।
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