बुद्ध और बौद्ध-धम ५२ एक समय राजा, दीर्घायु को साथ लेकर अहेड़ को गया। दीर्घायु के हृदय में ईर्षा की अग्नि जल रही थी। उसने राजा के रथ को इस प्रकार हाँका कि सेना एक ओर रह गई और राजा का रथ एक दूसरी ओर । राजा बहुत थक गया था,और युवा दीर्घायु की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया । थकावट के कारण वह तुरन्त सोगया। हे भिक्षुओ! उस समय वह दीर्घायु सोचने लगा कि काशी के राजा इस ब्रह्मदत्त ने हमारी बड़ी हानि की है। इसने हमारी सेना, रथ, राज्य, कोश और भण्डार सब-कुछ छीन लिया और मेरे माता-पिता को भी मार डाला; पर अब मेरे द्वेष का बदला लेने का समय आगया है। यह विचार कर उसने अपनी तलवार खींची, परन्तु बदला लेने वाले इस राजकुमार को अपने पिता के अन्तिम वाक्यों का स्मरण हो आयाः-"मेरे प्यारे दीर्घायु ! घृणा घृणा से शान्त नहीं होती, घृणा प्रीति से शान्त होती है। यह विचार आते ही राजकुमार ने सोचा कि पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं है,वस उसने अपनी तलवार रख दी। राजा ने एक बड़ा भयानक स्वप्न देखा और वह भयभीत होकर जाग उठा । दीर्घायु ने उससे सब सत्य सत्य बात कह दी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने कहा:-"मेरे प्यारे दीर्घायु! मुझे जीवन-दान दो, मेरे प्यारे दीर्घायु !! मुझे जीवन-दान दो।" उस सुशील युवा ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करके अपने पिता के वध को क्षमा कर दिया और ब्रह्मदत्त को जीवन- .
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