बौद्ध-संघ शील के नाम से पुकारा जाता है। वे १० शील इस प्रकार के थे- (१) हिंसा न करना (२) चोरी न करना (३) झूठ न बोलना (४) नशा न करना (५) व्यभिचार न करना (६) असमय भोजन न करना (७) खाट या बिछौने पर न सोना (5) नाचने, गाने-बजाने में दिल न लगाना (8) सोना-चाँदी काम में न लाना (१०) शृंगार न करना। यदि पहले के पाँच शीलों के विरुद्ध कोई भिक्षु आचरण करता हुआ पाया जाता तो संघ उसे बाहर निकाल देता और अगर कोई पीछे के पांच शीलों को भंग करते हुए पाया जाता तो उसे दण्ड दिया जाता था। भिक्ष होने के पश्चात् इन चार नियमों का विशेपतौर से पालन करना पड़ता था- (१) सब प्रकार के व्यभिचारों से बचना । (२) किसी पराई वस्तु पर लुब्ध दृष्टि न करना । (३) पूर्ण अहिंसा का पालन करना। (४) किसी देवी या अमानुपी शक्ति का दावा न करना । उसे भिक्ष होने के पश्चात् १०वर्ष तक बिलकुल अपने आचार्य के आधीन रहना पड़ता था । इस काल में भिक्ष और आचार्य का क्या सम्बन्ध रहना चाहिए, इस विषय में विनयपिटक के महावर्ग में बुद्ध ने कहा है-हे भिक्षुओ! प्राचार्य को चाहिए कि वह अपने शिष्य को अपने पुत्र की भाँति समझे और शिष्य को चाहिए कि