पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८३ बौद्ध-संघ के मेद आवश्यकता हो । जो वस्तु नष्ट होती है, वह न कहीं से आती है और न कहीं जाती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि दूसरे क्षण के लत्पन्न होने पर पहले क्षण में परिवर्तन होगया हो; क्योंकि वह क्षण वही नहीं था, जोकि दूसरा क्षण है। इस प्रकार की मान्यता आत्मा है और उसका परिवर्तन होता रहता है, यह भी वैसा ही असत्य है । माध्यमिक सम्प्रदाय का यह मत है कि चाहे कितनी भी खोज क्यों न की जाय, पर पंच- स्कन्धों के सिवा कोई और आत्मा ही नहीं है। यदि आत्मा सम्पूर्ण है तो उसमें न परिवर्तन हो सकता है और न गति ही हो सकती है। नहीं तो यह समझा जायगा कि एक ही आत्मा उसी क्षण में एक रूप त्यागकर दूसरा रूप लेती है, जो अचिन्तनीय है। अब यह एक बहुत ही विचारपूर्ण प्रश्न है कि यदि परि- वर्तन-क्रिया नहीं है और हजारों क्लेशों का चक्र जगत् में नहीं है, तो निर्वाण जिसे कि सब क्लेशों का अन्तिम विध्वंस या नाश कहा जाता है, वह क्या है ? अब माध्यमिक सम्प्रदाय के सिद्धा- न्तानुसार निर्वाण एक-सब वस्तुओं के जोकि दृश्यमान हैं, उनके स्वभावा-भाव का नाम है, वह अनिरुद्ध और अनुत्पन्न पदार्थ है। निर्वाण सब वस्तुओं का लोप है, अर्थात् निर्वाण प्रपञ्चवृत्ति का केवल एक अवसान है। होना न होना प्रपंच से सम्बन्ध रखता है । यहाँतक कि दृश्यमान पदार्थ का होना बन्द हो गया है, यह ज्ञान भी नहीं है । बुद्ध भी एक दृश्यमान पदार्थ है । मिथ्या मृग- तृष्णा और स्वप्न है और उसके उपदेश भी सव ऐसे ही हैं।