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पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/९०

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बौद्ध-संघ के भेद अवस्था जिसमें भवविकास की निरन्तर धारा बहती रहती है। अर्थात कार्य-कारण की सम्बन्ध-शृखला रहती है। माध्यमिक शाखा की शून्यता का रुप संस्कृत और असंस्कृत रुपों से भी आगे बढ़ा हुआ है। क्योंकि ये अन्योन्यापेक्ष शब्द हैं। संस्कृत और असंस्कृत धर्म एक दूसरे की अपेक्षा से हैं। असंस्कृत फा अस्तित्व संस्कृत के अस्तित्व पर निभर है, और संस्कृत का अस्तित्व असंस्कृत के अस्तित्व पर । और इस ही परस्पर सापेक्ष सम्बन्ध के कारण सब वस्तुए शून्य हैं । इन शब्दों से पर्मार्थत्व सूचित नहीं होता, यह अवलम्ब शून्यता कहलाती है । धर्म की वास्तविक अवस्था निर्वाण के समान अकथनीय, अविचारणीय और जन्म-मरण से रहित है। वह विचारों से और भापा से परे है, और संपूर्ण और केवल है। यदि मन और शरीर द्वारा सच्चा परिश्रम किया जाय तो हम उस परमार्थ सत्य को ग्रहण कर सकते हैं । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर पुरुष 'तू', 'मैं', 'यह', 'वह' इत्यादि भेद-भावों को भूल जाता है । धर्मों की वास्तविकता में आत्मा-अनात्मा कुछ नहीं। शून्यता का सच्चा अर्थ बताने के लिए इस प्रकार चार पुट बताये गये हैं-- पहला पुट-सत्ता संवृत्त सत्य है, और शून्यता परमार्थ सत्य कहलाता है। दूसरा पुट-दो सत्यों का पहला पुट संवृत्त सत्य है, न सत्ता और न शून्यता परमार्थ सत्य है। "