बृहदारण्यकोपनिषद् स० बलीयांसम्बली के ।+ जेतुम् जीनने को । धौ-धर्म करके ही । श्राशंसते-इच्छा करना है। यथा जैसे । राज्ञा-राजा के साथ । स्पर्द्धमानः झगड़ा करनेवाला पुरुष । धर्मणधर्म करके ही । जीयते-जीता जाता है। वै-निश्चय करके । यः-जी। सा=बह । धर्म: धर्म है । तत्-वही । सत्यम्-सत्य है । तस्मात् इसीलिये । सत्यम्-पत्य । वदन्तम्-योलनेवाले को। इति-ऐसा । आहुः लोग कहते हैं कि । सः वह । धर्मम्- धर्म की बात । वदति-कहता है। चा-और । धर्मम्-धर्म के । वदन्तम्-कहनेवाले को । इति-ऐपा । + आहुः कहते हैं कि । +सःवह । सत्यम् सत्य । वदति कहता है । हिक्योंकि । एतत् यह सत्य और धर्म । उभयम्-दोनों । एतत्-यही है यानी एक ही है। भावार्थ । हे सौम्य ! जब वह ब्राह्मण वृद्धि के करने में असमर्थ हुआ, तब वह कल्याणरूप धर्म को उत्पन्न करता भया, इसलिये जो कुछ यह धर्म है वह क्षत्र का क्षत्र है यानी वह शासन करनेवाले क्षत्रियों का भी शासक है, तिमी कारण धर्म से श्रेष्ठ और कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि इसी धर्म करके निर्बली बली के जीतने की इच्छा करता है, और जैसे राजा, चोर, डाकू, दुष्ट पुरुषों को धर्म करके जीत लेता है, वैसे ही राजा भी धर्म ही करके जीता जाता है, जो धर्म है वही सत्य है और यही कारण है कि सत्य बोलनेवाले को लोग कहते हैं कि वह धर्म की बात कहता है, और धर्म के कहनेवाले को लोग कहते हैं कि वह सत्य कहता है, क्योंकि सत्य और धर्म दोनों एक ही हैं ॥१४॥
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