अध्याय १ ब्रामण ४ १०५ पा मा है। तस्मात् अपि इसी कारण । पतहि-माज कल भो । एकाकी-मनगाहा पुरुष । कामयते-चाहता है कि । जाया-नी । म मेरे लिये । स्यात्-प्राप्त होये । अध-तत् पश्चान् । अहम्-मैं । प्रजायेय-पुनरूप मे उममें उत्पन्न हो । ध-फिर । ममेरे लिये । वित्तम-गो सादिक कर्म माधन अप च्यात्मात होये । अयस्तत् पश्चात् ।+ अहम: मैं। कर्म भूमि के माधन कर्म को । कुर्वीय-कलं । इति इस प्रकार | सः पुरुष । यावत् अपि-जय तक । एतेषाम् इन को हुगे पदार्थों में से । एकैकम-एक एक को । नम्नहीं । प्राप्नोनि-मालेता। तावत्-तय तक । + सः वह । मन्यते मानना है कि । + अहम् मैं । एनिश्चय करके । अकृत्स्नः%D अपूर्ण : + अस्मि है । उन्नौर । तस्य-इसकी । मृत्स्नता- पन्ना । + तदानय 1 + मयतिम्रोनी है + यदा-जय । +मा+ प्रामानि-मनोगन अभिलापा को प्राप्त होता है। + उपर I + तस्य-टमको 1 + पूर्णता पूर्णता। + यदा- भय । भविष्यनि-होगी । यदा-जय ! + तस्य-उसका। +विचारः + इनि-ऐसा विचार होगा कि । मना-मन । पत्र की। श्रान्मा उसका घारमा है । वाक्-वाणी हो । जाया उसकी गी है । प्राण प्राण हो । प्रजा-उसका पुत्र है । चक्षुः नेयसी । मानुपम्-उसका मनुष्यसम्बन्धी। वित्तम्-धन है। हिग्योंकि । चतुपा-नैन करकेती । तत्-उस मनुष्य सम्बन्धी धन को । बिन्द प्राप्त होता है ।+ च-और । दैत्रम्-देवता- सम्बन्धी धन यानी विज्ञान । श्रोत्रम्-श्रोन है। हि-श्योंकि । श्रोत्रे-धीन कर दी। तत्-ठस ज्ञान की। रणोति-सुनता है। अस्य-म माधनयुशः पुरुप का । यात्मा पव-शरीर ही। कर्म कम है। हि-क्योंकि । श्रात्मना-शरीर करके ही । कर्म .
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