वृहदारण्यकोपनिषद् स० + श्राहकहता है । हि-श्योंकि । पिता-पिना में । मेधया- मेधा करके | + चोर । तपसा-तप करके । अन्नम-अन्न को। अजनयत्-पैदा किया ।+ चशोर I + यत्-जो। + इति ऐसा । + श्राहकाना है कि । एकम-एक ग्रन्न । साधारणम् साधारण है यानी मयके लिये वरायर । तत्-नो। अस्य + अर्थः-उसका अर्थ । इदम् यह है कि । पदमबाट । साधारणम्-साधारण अन्न | + सवंग-मय कर के। अद्यते खाया आता है। सा-वह । यःमो । एतनम साधारण शन की। उपास्ते-उपासना करना है। साच्याी। पाप्मन:- पाप से । न व्यावर्तते-निवृत्त नहीं होता। हिग्याकि एतत् यह साधारण अन्न । मिश्रम्-सयका है। पिता-पिता। द्वे-दो अन । हुतम्-हुत । च-और । प्रदुतम-नहुन । रति- नाम करके । देवान्-देवताओं को । अभाजयन्-देना भया । च-और । तस्मात् इसी कारण । देवेभ्यः देवनाचों के लिये। + विद्वान् + जना विद्वान् लोग । जुहति च-अग्नि में होम और बलिप्रदान करते हैं। और । प्रजुहति--विशेष करके अग्नि में अधिक होम करते हैं। अयो-और 1+ अन्याचार्या:- कोई कोई धाचार्य । आहुः कहते हैं कि । एतौ ये दोनों भन। दर्शपूर्णमासौ-दर्श और पूर्णमास इष्टि के नाम । इति करके हैं। तस्मात्-इसलिये । इटियाजुका कामयज्ञा न स्यात्-न करें । +च-ौर ।+यत्-जो। पशुभ्या-पशुओं के लिये । पकम् - एक अन्न । प्रायच्छत्-दिया । इति-ऐसा । + उफ्लम्-कहा गया है। तत्-वह अन्न । पयावृध है । हि-क्योंकि । एव- निश्चय करके । अग्रे-पहिले । मनुप्या मनुप्य | चौर । पशवः पशु । चम्भी। पय: दूध को । उपजीवन्ति-ग्रहण करके जीते हैं । तस्मात्-इसलिये । जातम्-उत्पन्न हुये ।
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