अध्याय १ ब्राह्मण ५ १२३ किंच, विज्ञातम्, वाचः, तत् , रूपम्, वाग्, हि, विज्ञाता, वाग्, एनम् , तत्, भूत्वा, अवति ॥ अन्धय-पदार्थ । एते-यह । एवम्ही । + त्रयः तीन यानी मन, वाणी, प्राण । विज्ञातम्-विज्ञात (जो ज्ञात हो चुका है)। विजिज्ञा- स्यम्-विजिज्ञास्य (जो ज्ञात होने योग्य है)। + च-और । अविज्ञातम्-अविज्ञात (जो अविज्ञात है ) । + तत्र-तिनमें से । यत्-जो। किंच-कुछ । विज्ञातम्-जाना गया है। तत्-वह । बाचा बाणी का । रूपम्-रूप है । हि-क्योंकि । वाग-बाणी हो । विज्ञाता-विज्ञात्री भी है यानी जाननेवाली है । वाग- वाणी ही । तत्-ऐसा विज्ञात । भूत्वा होकर । एनम् वाणी के महत्त्व जानने वाले पुरुष की । अवति अन्न करके पोपण काती है। 'भावार्थ । हे सौम्य ! यही तीन यानी वाणी, मन, प्राण, विज्ञात ( जो ज्ञात हो चुका है ) विजिज्ञास्य (जो जानने योग्य है) और अविज्ञात ( जो नहीं जाना गया है ) हैं, तिनमें से जो कुछ जाना गया है वह वाणी का रूप है, क्योंकि वाणी ही विज्ञात्री है, यानी जाननेवाली है, वाणी ही ऐसी विज्ञात होकर वाणी के महत्व के जाननेवाले पुरुप को अन्न करके पालन पोपण करती है ।। 1. मन्त्रः8 यत्कि च विजिज्ञास्यं मनसस्तद्रूपं मनो हि विजिज्ञास्यं मन एनं तद्भूत्वाञ्चति ॥
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