अध्याय १ ब्राह्मण ५. १२९ तत्-तिसी कारण । यावान्-जितना। एव-ही। प्राण प्राण है। तावत्यः-उतनाही। आपः-जल है। तावान्-उतनाही असो वह । चन्द्र चन्द्रमा है । तेन्वे वाणी, मन और प्राण । एते-ये । सर्वसव । एव-निश्चय करके । समाः प्रापस में बराबर हैं । सर्वसत्र । अनन्ताः अनन्त हैं । सा=वह । वःजो । ह- निश्चय करके । एतान्-इनको । अन्तवतःपरिच्छिन्न । + ज्ञात्वा-जानकर । उपासते-उपासना करता है। + सः वह । ह अवश्य । अन्तवन्तम्-नाशवान् । लोकम्-लोक को । जयति-जीतता है। अथ-और । यः जो । एतान्-इन मन, वाणी, प्राण को। अनन्तान्-अपरिच्छिन्न । + ज्ञात्वा-जानकर । उपास्ते-उपासना करता है । सःवह । अनन्तम्-अन्तरहित । लोकम् लोक को । जयति जीतता है। भावार्थ । हे सौम्य ! उस प्राण का शरीर जल: ह, यानी जल के आश्रय प्राण है, इसी कारण संस्कृत में कहा है, "जलं जीवनम्" विना जल के किसी प्राणी का जीवन नहीं रह सक्ता है, और प्राण का प्रकाशरूप यह चन्द्रमा है, इस कारण जहाँ तक प्राण की स्थिति है वहाँ तक जल है,. और वहीं तक चन्द्रमा है, इसलिये वाणी, मन और प्राण आपस में बराबर हैं और सबही अनन्त हैं । जो कोई इन वाणी, मन और प्राण को परिच्छिन्न जानकर उपासना करता है, वह अवश्य नाशवान् लोकों को प्राप्त होता है, और जो उपासक मन, वाणी, प्राण को अपरिच्छिन्न जान- कर उपासना करता है, वह अवश्य अन्तरहित लोकों को प्राप्त होता है ॥१३॥ . ह
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