पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१५५

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अध्याय १ ब्राह्मण ५ १३६ हे पिता! मैं वेद हूँ यानी वेद को पढूँगा, मैं यज्ञ हूँ यानी यज्ञ करूँगा और मैं लोक हूँ यानी लोकों को जीतूंगा, तब फिर पिता कहता है, हे पुत्र ! जो कुछ मुझ करके पढ़ा गया है, और जो नहीं पढ़ा गया है उन सबकी एकता वेद के साथ है, और जो कुछ मुझ करके यज्ञ किया गया है उनकी एकता यज्ञ के साथ है, और जो कुछ लोक जीते गये हैं या नहीं जीते गये हैं, उन सबकी एकता लोकपद के साथ है, इस ऊपर कहे हुये का अभिप्राय यह है कि जो कुछ पिता ने लड़के को सिखलाया है और जो कुछ लड़के ने पिता से सीखने को कहा है वह सब वेद में अनुगत है, और जो कुछ पिता से लड़के ने यज्ञ करने को वाक्य दिया है वह सब यज्ञ विषे अनु- गत है, और जो पिता से लोकों की प्राप्ति के लिये लड़के ने कहा है वह सब लोक में अनुगत है, हे सौम्य ! फिर पिता अपने से कहता है कि यही तीन कर्म ऊपर कहे हुये हैं, इनसे अधिक कर्म कोई नहीं है, हे पुत्र ! तू मुझ को इसके भार से उद्धार कर, और उस भार को अपने ऊपर रख, और मुझको सब प्रकार के बन्धनों से छुड़ा दे । पुत्र कहता है ऐसाही करूँगा, इस कारण सुशिक्षित पुत्र पितरों का हितकारी होता है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं, और इसी कारण पुत्र को विद्या पढ़ाते हैं, कर्म सिखाते हैं, और जब वह पिता इस लोक से चला जाता है तब वह इन वाक्, मन और प्राण के साथ पुत्र में प्रवेश करता है, और यही कारण है कि पुत्र पिता की तरह कर्मों को करने लगता है, यदि पिता ने कोई कर्म विघ्नवश नहीं किया है तो पुत्र उस अकृत कर्म को करके पिता को पाप से छुड़ा देता है, इसी कारण वह पिता पुत्र .