पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१५४

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१३८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अनुशासति विद्या पढ़ाते और कर्म मिवाने हैं। + यदा-जय। सा=बह पिता। एवंवित्-ऐला जाननेवाला । अस्मान्-हम । लोकात्-लोक से यानी इस शरीर से । प्रतिज्ञा जाता है। अथ तब । + सः वह । एभिः इन । प्राणैः एवम्याणी, मन घऔर प्राण के । सह-माघ । पुत्रम्-पुत्र में । श्राविशति-प्रवेश करना है। + येन-मिस करके । + साबह पुत्र + पितृवत्- पिता की तरह । + कर्म-कर्मी को । + करोति करता है। यदि-अगर । अनेन इस पिता करके ! किचित्-कुछ। अक्ष्णयाविनवश | अकृतमन्नहीं किया गया। भवति होता है तो । सः बह । पुत्र:=पुत्र । तस्मात्-उस । सर्व- स्मात् सब प्रकृत कर्म से। एनम् इम पिता को । मुञ्चति- छुड़ा देता है । तस्मात् इस कारण । सःवह पिता । पुत्रा पुत्ररूप । नाम-करके प्रसिद्ध है। + अतः इसी कारण । +स: वह पिता । पुत्रेण=पुत्ररुप से । अस्मिन् लोक-इस लोक विपे । एव-अवश्य । प्रतितिष्ठति विद्यमान रहता है । अथ-तत्पश्चात् । एनम्-इस पुत्र में । पते थे। प्राणाम्मन, वाक्, प्राणादि । देवाः देवता । अमृताःमरणधर्मरहित । आविशन्ति-प्रविष्ट रहते हैं। . भावार्थ । हे सौम्य ! तीन लोक जो ऊपर कथन कर आये हैं उन सबके पीछे अब सम्पत्ति कर्म का वर्णन करते हैं, हे सौम्य ! जब पिता मरने लगता है तब वह अपने पुत्र को समझाता है कि हे पुत्र ! तू वेद है यानी तू वेद को पढ़, तू यज्ञ है यानी यज्ञ को कर, तू लोक है यानी तू सब लोकों को अपने पुरुषार्थ करके प्राप्त कर । यह सुन कर पुत्र जवाब देता है कि