पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१६२

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१४६ वृहदारण्यकोपनिषद् स० देखता रहूँगा। इति=ऐसा व्रत । चक्षुःनेत्र। दधे-धारण करता भया। अहम मैं । श्रोप्यामि-सुनता रहूँगा । इति- ऐसा व्रत । श्रोत्रम्-प्रोत्र । + द धारण करता भया। एवम्-इसी प्रकार | अन्यानि-और । कर्माणि इन्द्रियाँ भी। यथाकर्म-अपने अपने कर्मानुसार । + दधिरे-प्रत धारण करती भई 1 + तदाराब श्रमः भ्रम । मृत्युः मृत्यु। भृत्वा-होकर । तानि-उनको । उपयेमे-पकद लिया यानी काम में थका दिया। + चोर । तानिउनको । थाप्नोत् अपना स्वरूप दिखलाता भया यानी उनके निकट श्रा पहुँचा।+ चोर । श्राप्त्वा उनके पास जाकर । मृत्युःवही मृत्यु । श्रवारुन्ध-उनको सपने काम से रोकता भया । तस्मात्-तिसी कारण वाक् एव-वाणी अवश्य । श्राम्यति-योलते २ थक माती है । चक्षुः=नेन । श्राम्यति-देखते २ थक जाता है। श्रोत्रम्-प्रोत्र । श्राम्यति: सुनते २ थक जाता है । + सौम्य-हे सौग्य ! अथ-सब अखएड व्रत को कहते हैं । + मृत्युः मृत्यरूपी श्रम । इमम् एव-इस प्राण को । न-नहीं । प्राप्नोन्-पकड़ सका । यःमी । अयम्- यह । मध्यमान्मध्यम यानी सब इन्द्रियों में फिरनेवाला। प्राण:- प्राण है । +तम् ज्ञातुम्-उसके सानने के लिये । तानि-वे सब इन्द्रियाँ । दधिरे-इच्छा करती भई।+च-और । तिम्-उसको। + ज्ञात्वा-जानकर । + वदन्ति+स्म-कहने लगी कि । न: हम लोगों में । +प्राणः वैप्राण ही । श्रेष्ठः श्रेष्ठ है। यःजो। 'संचरन्-चलता हुआ । च-यौर । असंचरन्न चलता हुआ। च भी। नन्न । व्यथते-दुखी होता है। अथो-और । नन्न । रिष्यति-नष्ट होता है । हन्त-यदि सबकी राय हो तो। सर्वे हम सब । अस्य-इसी का । एवम्ही । रूपम्-रूप । असाम: बन जाय । इति ऐसा सुनने पर । ते सर्वे वे सव । एतस्य-