पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१७३

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अध्याय २ ब्राह्मण १५७ भावार्थ । और कर्मों का आत्मा ही उपादान कारण है, क्योंकि आत्मा से ही सब कर्म किये जाते हैं, यही इन कर्मों का साम है, यही सब कर्मों के समान है और यही इनका ब्रह्म है, यही सब कर्मों को धारता है, ये ही तीनों सत्यरूप होकर एक हैं, यही नाम- रूप-कर्मात्मक आत्मा है, यही तीनों नामरूप-कर्मवाला है, वही यह अविनाशीरूप होकर पञ्चमहाभूतों से घिरा है, और प्राण ही अमृतरूप है और नाम-रूप कर्मात्मक हैं उन दोनों से ही यह प्राण अप्रकाशित रहता है |॥ ३ ॥ इति पष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ६ ॥ इति श्रीबृहदारण्यकोपनिषदि भाषानुवादे प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्रीगणेशाय नमः । अथ द्वितीयोऽध्यायः। अथ प्रथमं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ दृप्तवालाकिानूचानो गार्ग्य प्रास. स होवाचाजात- शत्रु काश्यं ब्रह्म ते अवाणीति स होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दो जनको जनक इति वै जना धावन्तीति ॥