अध्याय २ ब्राह्मण १ भावार्थ। हे सौम्य ! वह प्रसिद्ध गर्गगोत्रोत्पन्न बालाकी बोला कि है राजन् ! जो यह अग्निपिपे पुरुप है, यानी उसका जो अधि- टात्री देवता है, उसको में ब्रह्म समझकर उपासना करता हूं, तुम भी ऐसा ही करो, ऐसा सुनकर राजा ने कहा कि हे अनूचान, ब्राह्मण ! ऐसी बात इस ब्रह्म विषे मत कहो, जिसको तुम ब्रह्म करके समझते हो, वह ब्रह्म नहीं है, वह अग्नि देवता है, जो सब कुछ सहनेवाला है, यह सबसे बड़ा जबरदस्त है, में इसको ऐसा समझकर इसकी उपा- सना करता हूं, परंतु ब्रह्म समझकर नहीं करता हूँ, और जो अन्य पुरुष इसकी उपासना ऐसा ही समझ कर करता है, वह भी सहनशीलवाला होता है, और उसकी संतान सहनशीलवाली अवश्य होती है ॥ ७॥ मन्त्रः स होवाच गायों य एवायमप्सु पुरुप एतमेवाह ब्रह्मोपास इति स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठाः प्रतिरूप इति वा अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते प्रतिरूप हेवैनमुपगच्छति नाप्रतिरूपमथो प्रतिरूपो-. ऽस्माज्जायते ॥ पदच्छेदः। सः, ह, उवाच, गार्यः,. यः, एव, अयम् , अप्सु, पुरुषः, एतम् , एव, अहम् , ब्रह्म, उपासे, इति, सः, ह, उवाच, अजातशत्रुः, मा, मा, एतस्मिन्, संवदिष्ठाः, प्रतिरूपः, इति, . .
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