पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय २ ब्राह्मण १ १८१ वत्, हि, इति, न, एतावता, विदितम्, भवति, इति, सः, ह, उवाच, गार्यः, उप, त्वा, यानि, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । ह-तब । सा-वह । अजातशत्रुः-अजातशत्रु राजा। उवाच बोला कि । नू-क्या । एतावत् इति + विजानासि-तुम इतना ही जानते हो।+ वालाकि:-बालाकी | + उवाच-बोला कि । हिम्हां अवश्य । एतावत् इति इतना ही ब्रह्म त्रिपे । + जानामि मैं जानता हू। + पुनम्-फिर । + काश्या काशी के राजा ने । आह कहा | एतावता इति इतना करके । विदितम् ब्रह्म का ज्ञान । न-नहीं । भवति होता है। इति ऐसा । + श्रुत्वा-सुन कर । सा=वह । ह प्रसिद्ध । गायः= गर्गगोत्रोत्पल चालाकी । उवाच-बोला कि । त्वा-आपके । उप-निकट 1 + अहम्=मैं। + शिशुवत्-शिष्यवत् । इति ऐसा । यानि प्राप्त है। भावार्थ । हे सौम्य ! जब बालाकी चुप होगया, तब राजा अजात- शत्रु ने कहां हे अनूचान, ब्राह्मण ! क्या तुम ब्रह्म बिपे इतना ही जानते हो? उसने कहा हा महाराज, ब्रह्म विषे इतनाही मैं जानता.हूं, इससे राजा को विज्ञात होगया कि यह ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान में अपूर्ण है, और फिर कहा कि इतने करके ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो सकता है, इस पर बालाकी को मालूम होगया कि राजा को ब्रह्म का पूरा ज्ञान है, ऐसा जान कर राजा से कहा कि हे भगवन् ! मैं आपके निकट शिष्यभाव से प्राप्त हूं ॥ १४ ॥