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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२०

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. बृहदारण्यकोपनिषद् स० नेत्र सूर्य है, जैसे सूर्य से सब कार्य सिद्ध होता है, वैसे ही नेत्र से सब कार्य की सिद्धि होती है, और जैसे शिर के निकट नेत्र होते हैं, वैसे ही उषाकाल के पश्चात् सूर्य उदय होता है, यानी उषाकाल के पीछे थोड़ी देर में सूर्य निक- लता है, इस प्रकार इन दोनों की एकता है, घोड़े का प्राण बाह्य वायु है, जैसे प्राण विना शरीर नहीं रह सकता है, वैसे ही वायु विना कोई जीव नहीं रह सकता है, उसका खुला हुआ मुख वैश्वानर नामक अग्नि है, अग्नि की उपमा मुख से देते हैं, और अग्नि मुख का देवता भी है, और जैसे वैश्वानर अग्नि करके सब जीव जीते हैं वैसे मुखद्वारा भोजन करके सब जीव जीते हैं, उसका आत्मा संवत्सर है, जैसे घोड़े के मुखादि अंग बारह होते हैं, यानी ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ ज्ञाने- न्द्रियाँ, मन और बुद्धि वैसे ही संवत्सर में बारह महीने होते हैं, इसकारण ऐसा कहा गया है, उस घोड़े की पीठ स्वर्ग है, जैसे सब लोकों में स्वर्ग ऊपर होता है, वैसे ही घोड़े की पीठ भी ऊपर होती है, उस घोड़े का पेट अंतरिक्ष है, जैसे अंतरिक्ष में सब चीजें भरी पड़ी हैं, और जैसे अंतरिक्ष गहरा है वैसे ही पेट में सब चीजें भरी हैं, और वह गहरा भी है, उसका पाद पृथिवी है, जैसे पृथिवी नीचे है, वैसे ही पाद भी नीचे हैं, उसकी बगलें दिशायें हैं, यानी जैसे मुख्य दो दिशायें हैं वैसे ही उस घोड़े की दो बगले हैं, उसके बगलों की हड्डियाँ उपदिशायें, जैसे बगलों की हड्डिया बगल से मिली होती हैं,वैसे ही दिशाओं से उपदिशायें मिली रहती हैं, उसके शरीर के पृथक्-पृथक् भाग ऋतु हैं, क्योंकि दोनों में सादृश्यता है, और उसके अंगों के. जोड़ मास . , .