अध्याय २ ब्राह्मण १ १८७ वागादि इन्द्रियों को अपने में लय कर लेता है, तब लोग ऐसा कहते हैं कि यह पुरुष सोता है, उस समय इस पुरुष की घ्राणेन्द्रिय अपने कार्य के करने में असमर्थ होजाती है, नेत्रेन्द्रिय अपने कार्य के करने में असमर्थ होजाती है, श्रोत्र 'अपने कार्य के करने में असमर्थ होजाता है, और मन अपने कार्य के करने में असमर्थ होजाता है ।। १७ ॥ मन्त्रः १८ स यत्रतत्स्वप्न्यया चरति ते हास्य लोकास्तदुतेव महाराजो भवत्युतेव महाव्राह्मण उतेवोच्चावचं निगच्छति स यथा महाराजो जानपदान् गृहीत्वा स्व जनपदे यथा- कामं परिवर्तेतैवमेवैष एतत्माणान् गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते ।। पदच्छेदः । सः, यत्र, एतत् , स्वप्न्यया, चरति, ते, ह, अस्य, लोकाः, तत् , उत, इय, महाराजः, भवति, उत, इव, महाब्राह्मणः, उत, इव, उच्चावचम् , निगच्छति, सः, यथा, महाराजः, जानपदान , गृहीत्वा, स्वे, जनपदे, यथाकामम् , परिवर्तेत, एवम् , एव, एपः, एतत् , प्राणान् , गृीत्या, स्वे, शरीरे, यथाकामम्, परिवर्तते ।। अन्वय-पदार्थ। यत्र जिस काल में । सान्बह । स्वप्न्ययावत द्वारा। एतत्-इस शरीर में । ह-अवश्य । चरति-स्वप्न के व्यापारों को करता है । + तदा उस समय में । अस्य-इस पुरुष के । ते वे ।
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२०३
दिखावट