पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२०४

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१.८८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० लोकाः किये हुये सब कर्म-फल | + उत्तिष्ठन्ते-उदय हो पाते हैं । तत्-उस अवस्था में । उतभी । सा-वह । महाराज:- महाराजा के । इव-समान । एतत्-इस शरीर में भवतिमविच- रता है। उत और कभी । महाब्राह्मणान्महामायण की। इव- भांति । + भवति-विचरता है। उत और कभी । + सायद सुप्तगत । पुरुपाचुरुप + महाव्राह्मण महाबाह्मण की। इ% भांति । उच्चावचम् ऊंच नीच योनि को।निगच्छति-प्रास होता है। + चम्धौर । यथा-जैसे । महाराजा-कोई महाराजा। जानपदान्जीते हुये देशों के पदाधों को । गृहीत्वान्लेकर । स्वे-अपने । जनपदे-देश में । यथाकामम् अपनी इच्छानुसार । परिवत्त-घूमता फिरता है । एवम् एव इसी प्रकार । एप: यह पुरुष भी। प्राणान्यागादिक इन्द्रियों को। गृहीत्वा- लेकर । स्वे-अपने । शरीरे-शरीर में । यथाकामम् कामना के अनुसार । परिवर्तते-भ्रमण करता है। भावार्थ। हे सौम्य ! जिस काल में यह जीवात्मा इस शरीर में स्वप्नद्वारा स्वप्न के व्यापार को करता है, तब उसके पूर्व के किये हुये कर्म के फल उदय हो पाते हैं, और तभी यह जीवात्मा कभी महाराजा के समान बर्तता है, और कभी महाब्राह्मण के समान बिचरता है, और कभी ऊंच नीच योनि को प्राप्त होता है, यानी कभी राजा होता है, और कभी चाण्डाल बनता है, कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी मारता है, और कभी मारा जाता है, और जैसे कोई महाराजा जीते हुये देशों के पदार्थों को लेकर अपने देश में अपनी इच्छानुसार धूमता फिरता है, इसी प्रकार यह .