- २०४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० दोनों । यत्-चलने फिरने वाले हैं। एतत्-या दोनों । त्यत्: घव्यक्त है । तस्य-तिस । एतस्य-इस । अमर्तस्य अति. मान् का। एतस्य-इस । अमृतस्य-समर धनंयाले का पतस्य इस । यतःचलने फिरनेवाले का । पतस्य । त्यस्य-श्रव्यन का । यःमो। ए.पन्या । रसःसार है। + सावही । एतस्मिन् दम पृर्य । मगअन मगठन में । एक: यह । पुरुषः पुरूप है। हियोंकि । एप:-या, पुरुप । त्यस्यम् अव्यक्त का ही । रसाम्पार है। इति-यह। अधिदेव. तम्-देवतासम्बन्धी विज्ञान है। भावार्थ। हे सौम्य ! अब इस मन्त्र में ब्रह्म के अमूर्तिगान् रूप को कहते हैं । पांच महाभूतों में से तीन यानो तेज, जल, पृथ्वी मूर्तिमान् हैं, जिनका व्याख्यान पहिले मन्त्र में हो चुका है, और दो यानी वायु और श्राकाश यमूर्तिमान् है, यानी उनकी अपेक्षा ये दोनों अमरधर्मी है, चलने फिरने वाले हैं, और अव्यक्त है, यानी निराकार हैं, इन दोनों का सार सूर्यस्थ पुरुप है, यह देवतासम्बन्धी उपदेश है ॥ ३ ॥ मन्त्रः ४ अथाध्यात्ममिदमेव मृर्त यदन्यत्माणाच यश्चाय- मन्तरात्मन्नाकाश एतन्मयमेतस्थितमेतत्सत्तस्यैतस्य मूर्तस्यैतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्य॑तस्य सत एप रसो यच्चक्षुः सतो ह्येप रसः॥ पदच्छेदः। अथ, अध्यात्मम् , इदम् , एव, मूर्तम् , यत् , अन्यत्, . .
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