२०० वृहदारण्यकोपनिषद् स० हि, एतस्मात्, इति, न, इति, अन्यत, परम् , अस्ति, अथ, नामधेयम् , सत्यस्य, सत्यम् , इति, प्राणाः, वै. सत्यम्, तेपाम्, एषः, सत्यम् ।। अन्यय-पदार्थ। + अथ-प्रव । तस्य-उस | पतम्य-म । ६ मसिन्ह । पुरुषस्य-गीयात्ना के । रुपम-रूप को। + ग्राहकाने हैं। +कदा कभी। + अस्य-इस जीवात्मा का | + स्वरूपम्: स्वरूप | महारजनम् कुसुंभ के फूलों से रंगा हुश्रा। वासः यथा-वस्त्र की तरह । + भवति होता है। + अदा कभी। पाण्डुकुछ श्वेत । यथा श्राविकम् -भेदी के रोम की तरह। + भवति होता है । कदा कभी। यथा इन्द्रगोपः-ग्रीर. बहरी कीट के समान । + भवति होता है । + दा कमी। यथा अग्न्यर्चिा अग्नि की माला की तरह। + भवति होता है । + कदा-कभी । यथा पुण्डरीकमश्वेत कमल की तरह । + भवति होता है। + कदा-कभी । यथा सुकृत् विद्युत्तम्-एकायक विद्युत् के प्रकाश की तरह । + भवति होता है यानी इन उपमानों के समान वह जीवात्मा विपयों के मंयोग से अनेकरूपवाला हुधा करता है । + यः जो। + एतस्य% इस जीवात्मा को । एवम् ऊपर कहे हुये प्रकार । वेद-जानता है। तस्य--उसकी । श्रीः-संपत्ति । सविद्युत्ता इच-एकबारगी विद्युत् के प्रकाश के समान चमकनेवाली। ह-निस्संदेह। भवति होती हैं। अथ-प्रय । + चालाके हे बालाकै । अतः- यहां से । आदेश:=परमामा के विपय में उपदेश । नेति- नेति-न इति न इति करके । + प्रारभ्यते प्रारम्भ करते हैं। हि क्योंकि । एतस्मात् इस ! + उपदेशात्-उपदेश से ।
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