अध्याय २ ब्राह्मण ३ २०६ 1 + अन्योपदेश और उपदेश । न श्रेष्ठ नहीं है। + हि क्योंकि । अस्मात् इस परमात्मा से। अन्यत्न्दूसरा । परम्- उत्कृष्टदेव । नेति अस्ति नहीं है। अथ अब । नामधेयम्= ब्रह्म के नाम को । + श्राहकहते हैं । + तस्य उसका । +नाम-नाम । सस्यस्यम्सत्य का । सत्यम्-सत्य । इति: ऐसा है यानी परम-सत्य है। प्राणाप्राणों का 1 + नाम नाम । वै-निश्चय करके । सत्यम्-सत्य है । तेपाम्-उन प्राणों को। + एक-भी। एपबह परमात्मा । सत्यम्-सत्ता देनेवाला है। भावार्थ। हे सौम्य ! अब इस जीवात्मा के स्वरूप को अनेक उपमाओं द्वारा वर्णन करते हैं, हे सौम्य ! कभी इस जीवात्मा का स्वरूप कुसंभ के फूलों से रंगे हुये कपड़ों की तरह हो जाता है, कभी किंचित् श्वेत भेड़ के रोम की तरह हो जाता है, कभी इन्द्रगोपनामक कीट ( वीरबहूटी ) की तरह होजाता है, कभी अग्नि की ज्वाला की तरह उसका रूप हो जाता है, कभी श्वेतकमल की तरह उसका रूप हो जाता है, की विद्युत् के प्रकाश की तरह इसका रूप बन जाता है, यानी जैसी इसकी उपाधि होती है वैसे ही यह आत्मा भी देख पड़ता है, हे प्रियदर्शन! जो पुरुप इस रहस्य का जाननेवाला है उसकी संपूर्ण संपत्ति विद्युत् के प्रकाश की तरह चमकनेवाली होती है, हे वालाके ! जो अभी तक कहा गया है, वह प्रकृति और जीव के विषय में कहा गया है, अब परमात्मा के विषय में उपदेश प्रारम्भ करते हैं, हे ब्राह्मण ! उस परमात्मा का उपदेश नेति नेति शब्दों से होता है, क्योंकि इस उपदेश से बढ़कर दूसरा -> १४
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