वृहदारण्यकोपनिषद् म. अन्वय-पदार्थ । + अत्र-इस पिणे । सःप्रमिछ । प्रान्तःरयान्न । + वदति देते हैं कि । यथा-जैसे । हन्यमानन्य यमाये हुये । दुन्दुभंः नगारे के । बाहान-बाहर निकले हुये 1 शम्दान: शब्दों को। ग्रहणाय-पकहने के लिये ' + जनः कोई मनुष्य । न-नहीं । शक्नुयात्-ममर्थ होता है । तु-परन्न । दुन्दर्भः ग्रहणेन-दुन्दुभि के पका लेने से । वाया । दुन्दुभ्या- घातस्य + ग्रहरंगनन्दुन्दुभि के यमानेवाले के पका लेने में। शब्दः शब्द । गृहीतः गृहीत। भवतिगोगा है। तहत- उसी प्रकार | + प्रात्मनःप्रात्मा के ज्ञान से | + सर्वस्य शानम्-सयका ज्ञान । + भवति-होता है। भावार्थ। है सौम्य ! मैत्रेयी को दृष्टान्त देकर याज्ञवल्क्य महाराज समझाते हैं कि हे मैत्रेयि ! जैसे बजाये हुये नगारे के बाहर निकले हुये शब्दों को कोई मनुष्य नहीं पकड़ सका है वैसेही आत्मा को कोई बाहर से पकड़ना चाहे तो नहीं पकड़ सत्ता है, परन्तु जैसे दुन्दुभि के पकड़ लेने से अथवा दुन्दुभि के बजानेवाले को पकड़ लेने से शब्द पकड़ा जा सकता है उसी प्रकार हे प्रिये मैत्रयि ! आत्मा के समीप जो इन्द्रिय समूह हैं उनके रोकने से आत्मा का ज्ञान हो सकता है ॥ ७ ॥ स यथा शङ्कस्य मायमानस्य न चाह्याशब्दाशक्नु- याद्ग्रहणाय शकस्य तु ग्रहणेन शमस्य, वा शब्दो गृहीतः ॥
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