अध्याय २ ब्राह्मण ४ २२३ भावार्थ । हे मैत्रेयि ! ब्रह्मत्व उस पुरुप को त्याग देता है, जो प्रात्मा से पृथक्, ब्रह्मत्व को जानता है । क्षत्रियत्व उस पुरुप को त्याग देता है, जो आत्मा से पृथक् क्षत्रियत्व को जानता है। घलोक, अन्तरिक्षलोक, पृथिवीलोकादि उस पुरुप को त्याग देते हैं जो आत्मा से भिन्न उन लोकों को जानता है । सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, शिव, आदि देवता उस पुरुप को त्याग देते हैं जो अपने जीवात्मा से इन देवों को पृथक् जानता है । सकल प्राणी उस पुरुप को त्याग देते हैं जो अपने जीवात्मा से इन सबको पृथक् जानता है । हे मैत्रेयि ! मैं इस विषय में बहुत क्या कहूँ इतनाही कहना बहुत है कि जो ब्रह्माण्ड विपे है, हे मैत्रेयि ! वह उस पुरुप को त्याग देते हैं जो अपनी आत्मा से पृथक् उन सब को जानता है । हे मैत्रेयि ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, लोकलोकान्तर, देवता आदि प्राणिमात्र जो कुछ है यह सब जीवात्माही है, इससे पृथक् कुछ नहीं है ॥६॥ मन्त्र: ७ स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याशब्दाशक्नु- याद्ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः॥ पदच्छेदः। सः, यथा, दुन्दुभेः, हन्यमानस्य, न, बाह्यान् , शब्दान्, शक्नुयात्, ग्रहणाय, दुन्दुभेः, तु, ग्रहणेन, दुन्दुभ्याघातस्य, वा, शब्दः, गृहीतः ॥ । .
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