२२८ बृहदारण्यकोपनिपद् स० करके । अरे हे प्रिय मैत्रेयि ! यत्जो । एतत् यह वक्ष्यमाण । ऋग्वेद: ऋग्वेद है । यजुर्वेदः यजुर्वेद है । सामवेदः सामवेद है । अथर्वाङ्गिरसा अथर्वण वेद है। इतिहास: इतिहास है। पुराणम्-पुराण है। विद्याः विद्या हैं। उपनिषद: वेदान्तशाम्र हैं । श्लोकाः काव्य हैं । सूत्राणि-पदार्थसंग्रहवाक्य हैं । अनुव्या- ख्यानानि मन्त्रव्याख्या हैं । व्याख्यानानि-अर्थव्याख्या है। एतानि ये सब । अस्य-उसी । महतः श्रेष्ठ । भूतस्य-जीवारमा के । निश्वसितम्-श्वास है ।+ च-और । अस्य-उसके । एवम्ही । निश्वसितानि-परश्वास हैं। भावार्थ । हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महाराज मैत्रेयी महारानी से कहते हैं कि हे प्रिय मैत्रेयि ! जैसे एक जगह रक्खी हुई गीली लकड़ी जब जलाई जाती है तब उसमें से नाना प्रकार के धूयें और चिनगारियां आदि निकलती हैं इसी प्रकार इस श्रेष्ठ जीवात्मा के श्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद, इतिहास, पुराण, विद्या, वेदान्तशास्त्र, श्लोक, सूत्र, मन्त्र, व्याख्या और अर्थव्याख्यादि निकलती है ॥ १० ॥ सन्न: ११ स यथा सर्वासामपा समुद्र एकायनमेव सर्वेपार्थ स्पर्शानां त्वगेकायनमेव सर्वेपां गन्धानां नासिके एकायनमेव सर्वेपाछ रसानां जिकैकायनमेवछ सर्वेपा रूपाणां चक्षुरेकायनमेवळ सर्वेपाछ शब्दाना श्रोत्रमेकायनमेव सर्वेपार्थ संकल्पानां मन एका- यनमेव सर्वासा विद्यानाछ हृदयमेकायनमेव सर्वेषां
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