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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२४७

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अध्याय २ ब्राह्मण ४ २३१ जैसे सब जगह नेत्र हैं, जैसे सब शब्दों के रहने की एक जगह श्रोत्र इन्द्रिय है, जैसे सब संकल्पों के रहने की एक जगह मन है, जैसे सत्र ज्ञानों के रहने की एक जगह हृदय है, जैसे सब कर्मों के रहने की एक जगह दोनों हाथ हैं, जैसे सब आनन्दों के रहने की एक जगह उपस्थ इन्द्रिय है, जैसे सब त्यागों के रहने की एक जगह गुदा इन्द्रिय है, जैसे सब मार्गों के रहने की एक जगह दोनों पाद हैं, वेदों के रहने की एक जगह वाणी है, वैसे ही हे मैत्रेयि ! सबके रहने का एक स्थान जीवात्मा है ॥ ११ ॥ मन्त्र: १२ स यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त उदकमेवानुविली. येत न हास्योद्ग्रहणायेव स्याद् यतो यतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वाअर इदं महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः॥ पदच्छेदः। सः, यथा, सैन्धवखिल्यः, उदके, प्रास्तः, उदकम् , एव, अनु, विलीयेत, न, ह, अस्य, उद्ग्रहणाय, इव, स्यात्, यतः, यतः, तु, आददीत, लवणम् , एव, एवम् , इदम् , महत् , भूतम् , अनन्तम् , अपारम् , विज्ञानघनः, एव, एतेभ्यः, भूतेभ्यः, समुत्थाय, तानि, एव, अनु, विनश्यति, न, प्रेत्य, संज्ञा, अस्ति, इति, अरे, ब्रवीमि, इति, ह, उवाच, याज्ञवल्क्यः ॥ " वै, अरे, - 1