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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२४८

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२३२ बृहदारण्यकोपनिपद् स० अन्वय-पदार्थ। + अत्र-इस विगे। सा-प्रसिद्ध । + ट्रान्त:दृष्टान्त है कि । यथा जैसे । उदके-जल में । प्रास्ताद्धाला हुला। सैन्धवखिल्या सैन्धव नमक का डला। उदकम्-अनु-जल में । एवम् ही । विलीयेत-गलकर लय हो जाता है। +च-ौर । + पुनाफिर । अस्य-उसके । उग्रहणाय-बाहर निकालने के लिये । + कश्चित् उपाय:कोई उपाय । न ह इवनिश्चय करके नहीं । स्यात् होसना है। च-और । यतः यत: अहां जहां से । आददीत ग्रहण करोगे । + ततः + ततः वहां वहां से । लवणम् एव-नमक ही को । + श्रादत्ते-पायोगे । एवम् + एव-इसी प्रकार । अरे हे प्रिय मैत्रेयि!। वै-निस्संदेह । इदम्-यह । महत् भूतम्-महान प्रारमा । अनन्तम् अनन्त । + च-और । अपारम्-अपार है । + च और । एच-निश्चय करके । विज्ञानघना-विज्ञानरूप है। + अयम्-यह । एतेभ्यः इन । भूतेभ्यः भूतों से । समुत्थाय-उठकर । तानि-उन्हीं के । अनु एव-अन्तर ही । विनश्यति-जलसैन्धववत् अदृष्ट होजाता है । + पुनः फिर । प्रेत्य-मरने पर। संज्ञा-उसका नाम । न-नहीं। अस्ति-रहता है। अरे हे प्रिय मैत्रेयि ! इति- ऐला । + ते-तेरे लिये । ब्रवीमि मैं कहता हूँ।+ इति-ऐसा। याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य । ह-निश्चय के साथ 1 उवाच- कहते भये । भावार्थ। हे सौम्य! याज्ञवल्क्य महाराज अपनी प्रिय पत्नी को दृष्टान्त देकर समझाते हैं, यह कहते हुये कि जैसे जल में डाला हुआ नमक का डला गल कर लय होजाता है, और उसके बाहर निकालने के लिये कोई उपाय नहीं होसक्ता है, और जहां ..