पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२५४

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२३८ बृहदारण्यकोपनिपद् स० सर्वाणि । भूतानि-रांची महाभूत हैं । च-और । अस्याम्-इस । पृथिव्याम्-पृथिवी में । यःजो। श्रयम् यह। तेजोमय:-प्रकाशस्वरूप । अमृतमय: यमरधर्मी । पुरुषः% पुरुप है। च-और । अध्यात्मम् हृदय में । अयम्-जो यह । शारीर-शरीर उपाधिवाला । तेजोमया-प्रकाशस्वरूप । अमृतमयाअमरधर्मी। पुरुपः पुरुप है। अयम्न्यही हृद. यस्थ पुरुष । एव-निश्चय करके । सः वही पृथ्वीसम्बन्धी पुरुप है। चौर । यःगो। अयम् -यह हृदयगत । श्रात्मा-पारमा है। इदम् यही । अमृतम्-अमर है। इदम्-ग्रही। बह्मन्ब्रह्म है। इदम् यही । सर्वम् सर्वशक्तिमान् है । भावार्थ । हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महाराज मैत्रेयी देवी से फिर कहते हैं कि हे देवि ! यह पृथिवी सब भूतों का सार है, यानी सब भूतों के रस से संयुक्त है, और इस पृथ्वी का सार पञ्चमहाभूत हैं, यानी इसका भाग और तत्वों में भी स्थित है, जैसे औरों का भाग इसमें स्थित है, हे देवि ! इस पृथ्वी में जो प्रकाशस्वरूप, अमरधर्मी पुरुप है, वही हृदयस्थ, शरीर उपाधिवाला प्रकाशस्वरूप, अमरधर्मी पुरुप है, यानी दोनों एक ही हैं, और जो हृदयस्थ पुषरु है, यही अमर है यही ब्रह्म है, यही सर्वशक्तिमान् है ॥ १॥ मन्त्रः २ इमा आपः सर्वेषां भूतानां मचासामपार्थ सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्म, रैतसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुपोऽय- मेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मदछ सर्वम् ।। . .