बृहदारण्यकोपनिषद् स० + अमन्यत-मानता भया कि । कम्जलादि । मे-मुझ । अर्चते तपल्प विचार करनेवाले के लिये ही । अभूत् उत्प हुधा है यानी मेरे रहने का स्थान हुचा है। तत् एव वहीं । अर्कस्य पूजनीय देव हिरण्यगर्भ ईश्वर का । एतत्-यह । अर्कत्वम् अर्कत्व यानी ईश्वरत्व है अथवा स्वभाव है । यःो । एवम्-इस प्रकार । अर्कस्य हिरण्यगर्भ ईश्वर के । अर्कत्वम् ईश्वरत्व को। वा और ।कम्-जल को। वेद-ज्ञानता है। अस्मै- उसके लिये । ह-अवश्य । वै-अभीष्ट । भवति-फल की सिद्धि होती है। भावार्थ। हे सौम्य ! इस वक्ष्यमाण सृष्टिक्रम के पहिले कुछ भी नहीं था, यह विश्व बुभुक्षारूप मृत्यु यानी हिरण्यगर्भ ईश्वर करके श्रावृत था. पहिले कुछ नहीं था, यह जो कहा गया है इससे मतलब यह है कि जो इस काल में नाम रूप करके जगत् दृश्यमान हो रहा है वह ऐसी सूरत में नहीं था, परंतु प्रलय होने पर प्रकृति के कार्य परमाणुरूप में और जीव अदृष्टरूप में स्थित थे, तिन्हीं को हिरण्यगर्भ ईश्वर आच्छा- दित किये धा, यानी उनमें व्याप्त था, ऐसे होते संते हिरण्य- गर्भ ईश्वर ने इच्छा को कि मैं मनवाला होऊँ, तब उसी क्षण मनवाला हुश्रा, और मन को उत्पन्न किया, और उसके आश्रित हुए प्रकृति के परमाणु आदि में संचालन शक्ति उत्पन्न हो आई, तिसके पीछे तिस स्मरण करनेवाल हिरण्य- गर्भ ईश्वर में परिश्रम के कारण उप्णता हा आई, जो उस यज्ञिय अश्वरूप हिरण्यगर्भ की अग्नि के तुल्य है, तिस उप्णता से जल उत्पन्न हो आया, तब हिरण्यगर्भ ईश्वर ने