अध्याय २ ब्राह्मण ५ २५९ भावार्थ। हे मैत्रेयि, देवि ! यही परमात्मा सब भूतों का अधिपति है, यही सब प्राणियों में प्रकाशस्वरूप है, और जैसे रथचक्र की नाभि में और परिधि में सब अरे लगे रहते हैं, इसी प्रकार इस परमात्मा में सब ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सब भूत, सब अग्नि आदि देवता, संब भूरादि लोक, सब वागादि इन्द्रियां, सब जीव समर्पित रहते हैं, यानी कोई विना आधार 'परमात्मा के रह नहीं सक्ता है, यानी इसी से सबकी उत्पत्ति है, इसी में सवका लय है, इसी में सबकी स्थिति है, ऐसा यह परमात्मा सबका आत्मा है, यही तुम्हारा स्वरूप है।॥१५॥ मन्त्रः १६ इदं वै तन्मधु दुध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेत- दृपिः पश्यन्नवोचत् । तद्वा नराः सनये दछस उग्रमा- विकृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम् । दध्यङ् ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्णा प्र यदीमुवाचेति ॥ पदच्छेदः। इदम् , वै, तत् , मधु, दध्यङ्, आथर्वणः, अश्विभ्याम्, उवाच, तत् , एतत् , ऋषिः, पश्यन् , अवोचत् , तत् , वाम् , नराः, सनये, दंसः, उग्रम् , प्राविः, कृणोमि, तन्यतुः, न, वृष्टिम् , दध्यङ्, ह, यत् , मधु, आथर्वणः, वाम् , अश्वस्य, शीणा, प्र, यत् , ईम् , उवाच, इति ।। अन्वय-पदार्थ । + मैत्रेयि हे प्रिय मैत्रेयि !। वैनिश्चय करके । अहम् =मैं । इदम्-इस तत्-उस । मधु-ब्रह्मविद्या को । + वदिष्यामि
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