पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२८

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1 . बृहदारण्यकोपनिषद् स० तस्य-उस हिरण्यगर्भ ईश्वर के 1 + शरीरात्-शरीर से। तेजोरसा तेजरस । अग्नि:-अग्नि । निरवर्तत-निकलता भया यानी अंडे के भीतर प्रथम शरीर रखनेवाला हिरण्यगर्भ होता भया । भावार्थ। हे सौम्य ! अर्क ही जल हैं, अर्क को सूर्य भी कहते हैं, और अग्नि भी कहते हैं, सृष्टिक्रम में जल के बाद अग्नि होता भया, चूंकि कारण कार्य में भेद नहीं होता है, इसलिये यहाँ अग्नि और जल की एकता है, जल में चलन होने के कारण फेन या झाग उठ आया. वह दही की तरह जम गया, वही फिर अग्नि की उष्णता पाकर कठोर होकर पृथ्वी हो गई, वह पृथ्वी अंडे के आकार में दिखलाई पड़ी, इस पृथ्वी के उत्पन्न होने पर हिरण्यगर्भ ईश्वर जिसका दूसरा नाम विराट् और प्रजापति भी है श्रमित होता भया, तिस श्रमित खेदयुक्त हिरण्यगर्भ ईश्वर के शरीर से तेजरस अग्नि उत्पन्न होता भया, यानी उस अंडे के भीतर प्रथम शरीर का रखनेवाला हिरण्यगर्भ हुआ ॥ २ ॥ मन्त्रः३ स बेधात्मानं व्यकुरुतादित्यं तृतीयं वायुं तृतीयं स एप प्राणस्नेधा विहितः तस्य प्राची दिक् शिरोऽसौ चासौ चेौं अथाऽस्य प्रतीची दिक् पुच्छमसौ चासौ च सक्थ्यौ दक्षिणा चोदीची च पार्वे द्यौः पृष्ठमन्तरिक्ष- मुदरमियमुरः स एषोऽसु प्रतिष्ठितो यत्र क चैति तदेव प्रतितिष्ठत्येवं विद्वान् ॥