पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. २७२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । मम् । प्रसिद्ध । वैदेहः विदेह देश का राजा । जनका जनक । वहुदक्षिणेन चहुंदक्षिणा-संग्वन्धी। यशेन यज्ञ करके । ईजे-यज्ञ करताभया। च-और । +यदा-जय । तत्र-उस यज्ञ में । कुरुपञ्चालानाम्-कुरु और पम्चाल देश के। ह- परम प्रसिद्ध । ब्राह्मणा-विद्वान् ब्राह्मण । अभिसमेता एकत्र। बभूवुः होते भये । हन्तव । वैदेहस्य-विदेह देश के राजा । जनकस्य-अनक को । इति ऐसी । विजिज्ञासा-तीव्र जिज्ञासा । वभूर्व-उत्पन्न होती भई कि । एपाम्-इन उपस्थित मान्य । ब्राह्मणानाम् ब्राह्मणों के मध्य में । क-कौन । स्वित्-ला 'ब्राह्मण । अनूचानतमा अति ब्रह्मवेत्ता है। +एवं विचार्य- ऐसा विचार करके । एकैकस्या-एक एक गौ के । शृङ्गयो दोनों सींगों में । दश दश-दस दस। पादामाद सुवर्ण । श्रावधा: बँधे । बभूवुः हुये। गवाम् सहस्रम्-एक सहस्र गौत्रों को । साह-वह राजा | अवरोध-एक जगह रखवाता भया । . भावार्थ। हे सौम्य ! एक समय मिथिलादेश के राजा जनक ने 'बहुदक्षिणानामक यज्ञ को किया, उस यज्ञ में देश देशान्तर के ब्रह्मविद् ब्राह्मण बुलाये गये, उसमें से विशेप करके कुरु और पञ्चालदेश के ब्राह्मण थे, ऐसा विचार कर राजा जनक ने इस यज्ञ का आरम्भ किया कि जो ब्रह्मवित् पुरुष इस यज्ञ निमित्त यहां एकत्र होंगे उनमें से कौन अतिश्रेष्ठ ब्रह्म- वेत्ता निकलेगा, जो मेरे को उपदेश करने को योग्य होगा, ऐसी विशेष जिज्ञासा करके एक सहस्र नवीन दुग्धवती गौत्रों को सींगों में सुवर्ण के पत्र मढ़वाकर दान निमित्त एकत्र करवाया ॥१॥