अध्याय ३ ब्राह्मण १ २८१
अनन्त है। + तस्य-उस मन के । विश्वेदेवाः विश्वेदेवता भी। अनन्ता:-धनन्त हैं । तेन-इसी कारण । सा-वह यजमान । अनन्तम्-अनन्त । लोकम-लोक को। एच-अवश्य । जयात जीतता है। भावार्थ । अश्वल फिर प्रश्न करता है कि हे याज्ञवल्क्य ! यह ब्रह्मा दक्षिण दिशा में बैठ कर कितने देवताओं से यज्ञ की रक्षा करेगा ! इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य कहते हैं कि केवल एक देवता करके यज्ञ की रक्षा होती है, इस पर अश्वल पूछता है कि वह एक कौनसा देवता है ? याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं कि वह एक देवता मन है, मन यद्यपि एक है, पर उसकी वृत्तियाँ अनन्त हैं, इस कारण मनसम्बन्ध करके विश्वेदेवता भी अनन्त हैं, ऐसे मन करके यजमान अनन्त- लोकों को जीतता है ॥ १ ॥ । याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमबोद्गातास्मिन् यज्ञे स्तोत्रिया स्तोष्यतीति तिस्र इति कतमास्तास्तिस्र इति पुरोनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया कतमास्ता या अध्यात्ममिति प्राण एवं पुरोनुवाक्यापानो याज्या व्यानःशस्या किं ताभिर्जयतीति पृथिवीलोकमेव पुरोनु- वाक्यया जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया धुलोक शंस्ययां ततो इ होताश्वल उपरराम ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ १ ॥