पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३०८

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२९४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अतिग्राहेण-प्रत्यन्त ग्रहण करानेवालापानेन-पागवायु करक। गृहीतः गृहीत है । हि-श्योंकि । + लोकालोक । अपानेन% अपानवायु करके । गन्धान-गन्धों को। जिनति-मू घता है। भावार्थ । आर्तभाग के प्रश्न को सुन कर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे पार्तभाग | उन आठ ग्रहों में से प्रथम ग्रह प्राणन्द्रिय है, और इसका विषय सुगन्धी और दुर्गन्धी अतिग्रह है, इसलिये वह प्राणरूप इन्द्रिय प्रह विषयरूप अतिप्रद करके गृहीत हैं, क्योंकि अपानवायु करके प्राणेन्द्रिय नाना प्रकार के गन्धों को ग्रहण करता है, याज्ञवल्क्य के कहने का तात्पर्य यह है कि आठ ग्रह यानी इन्द्रियां हैं, और पाठही उनके प्रतिग्रह हैं, यानी विषय हैं और चूंकि विषय इन्द्रियों को दवा लेते हैं, इसलिये इन्द्रियों की अंपदा विषय बलवान् होते हैं, और यही कारण है कि विषयों का नाम अति- ग्रह है ॥२॥ मन्त्रः३ वाग्वै ग्रहः स नाम्नातिग्राहेण गृहीतो वाचा हि ना. मान्यभिवदति ।। पदच्छेदः।

वाक्, वै, प्रहः, स, नाम्ना, थतिमाहण, गृहीतः, वाचा,

हि, नामानि, अभिवदति ।। अन्वय-पदार्थ। वाक्-वागिन्द्रिप । वै-ही। ग्रहः ग्रह है। सावही वागि- न्द्रियरूप ग्रह । नाम्ना नामरूप । श्रतिग्राण-प्रतिग्रह

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