३०२ वृहदारण्यकोपनिषद् स० माणाः क्रामन्त्याहो नेति नेनि होवान याजवल्क्यो- व समवनीयन्ते स उच्यत्यामायत्याध्मानोमत्तःशेने ।। पदच्छेदः। याज्ञवल्क्य, इति, ह, उवाच, यत्र, थयम्, पुरुषः, वियत, उत् . अस्मात् , प्राणाः, क्रान्ति. बाहो, न, इनि. न, इनि, ६, उवाच, याज्ञवल्क्यः, अत्र, एव, सम.. भय, नीयन्ते, सः, उच्न्यति, आध्मायति, प्राध्यातः, मृतः, शने ॥ अन्यय-पदार्थ । +धातभाग:-छातंभाग ने। इनिस प्रहार । उवाचका कि । याज्ञवल्क्य हे यापरय ! । यत्र-भिम समया अयम्- यह । पुरुष ज्ञानी पुरुष । म्रियने-मरना है। तदानर । अस्मात्-इस मरे हुए पुरुष में। प्रागा:प्रासादि इन्द्रियों। उत्-ऊपर को । कामन्ति-माती है । प्रादीमयाननी। इतिसा । मम प्रश्ना-मेरा प्रश्न है। + यानयल्स्या- याज्ञवल्क्य नेह-सट । इति-ऐसा । उवाच-र दिया कि नम्नहीं।+ कामन्ति-ऊपर फो जाती । प्रध पध-पदों पर पानी उसी में ही। समवनीयन्ते-लीन हो जाती है। और सा वह ज्ञानी पुरुष । उच्लयति-जाप को श्याम लेने लगना। पुना-फिर । प्राध्मायतिरसराट फा सन्द करने लगता है ततः तिसके पीछे । आध्मात: वायु मे धीकनी की तरह फूखा हुधा । मृतः-मरा हुघा । शेते-मोता है। भावार्थ । आतभाग फिर द्वितीय प्रश्न करता है, हे याज्ञवल्क्य ! जव यह ज्ञानी पुरुष ग्रह अतिमहरूप मृत्यु से हूट फर
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