अध्याय ३ ब्राह्मण ५ ३२३ चाहता हूँ। इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे कहोल! वह ब्रह्म तुम्हारा आत्माही है, वही सबके अभ्यन्तर स्थित है,वहीं अन्तर्यामी है, इसको सुन कर उषस्तवत् कहोल ने पूछा हे याज्ञवल्क्य ! वह कौनसा आत्मा सर्वान्तर है ? याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे कहोल !जो आत्मा क्षुधापिपासा से रहित है : जो शोक, मोह, जरा, मृत्यु से रहित है । वही आपका आत्मा है, वही सर्वान्तर है, वहीं सब का अन्तर्यामी है। हे कहोल ! जब पुत्रैषणा, वित्तषणा, लोकैषणा से रहित होकर ब्राह्मण की वृत्ति आत्माकार होती है, यानी लगातार अपने चैतन्य आत्मा की तरफ चला करती है, तब केवल शरीर निर्वा- हार्थ भिक्षावृत्ति वह करता है । हे कहोल ! .ये तीनों इच्छायें एकही हैं, ये तीनों निकृष्ट इच्छायें हैं, इनको त्याग कर शास्त्रसम्बन्धी ज्ञान का आश्रय लेवे फिर उसको भी त्याग करके ज्ञान विज्ञान शक्ति के आश्रय होवे और अपने ज्ञान के बल करके स्थित होवे। जब वह ब्राह्मण ऐसा करता है, तब वह ब्राह्मण मुनि कहलाता है, अर्थात् अपने वास्तविक रूप का मनन करता है, और करते करते कुछ काल के पीछे अमौन होजाता है, तब वह ब्रह्मवित् होता है, ऐसे ज्ञान से अतिरिक्त और साधन दुःख रूप हैं । याज्ञवल्क्य से ऐसा उत्तर पाकर और उसके तात्पर्य को समझ कर, कुषीतक का पुत्र कहोल स्तब्ध होता भया ॥ १ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५ ॥
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