३३४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । जव याज्ञवल्क्य महाराज को दुर्धर्प और अजय विद्वान् पाकर प्रश्न करने से गार्गी उपरत हो गई, तब अरुण ऋषि के पुत्र उद्दालक ने याज्ञवल्क्य से प्रश्न करना प्रारम्भ किया, ऐसा सम्बोधन करता हुआ कि, ई याज्ञवल्क्य ! हम लोग एक बार कपिनाम के गोत्र में उत्पन्न हुये पतञ्चलनामक विद्वान् के गृह गये, और यज्ञशास्त्र पढ़ने के निमित्त वहाँ ठहरे, उनकी भार्या गन्धर्वगृहीत थो, उस गन्धर्व से हमलोगों ने कि आप कौन हैं ? उसने उत्तर दिया कि मैं अथर्वा ऋषि का पुत्र हूँ, मेरा नाम कवन्ध है, इसके पीछे उस गन्धर्व ने कपिगोत्र बिपे उत्पन्न हुये पतञ्चल और यज्ञशास्त्र के अध्य- यन करनेवाले हमलोगों से पूछा, ऐसा सम्बोधन करता हुश्रा कि हे पतञ्चल ! तू उस सूत्र को जानता है जिस करके यह दृश्यमान लोक और इसका सूक्ष्मकारण, और परलोक और उसका सूक्ष्मकारण और समस्त जीव जन्तु सब प्रथित हैं। इसके उत्तर में काप्य पतञ्चल ने कहा हे भगवन् ! उसको मैं नहीं जानता हूँ, फिर उस गन्धर्व ने काप्य पतञ्चल और हम यज्ञशास्त्र के अध्ययन करनेवालों से पूछा हे काप्य ! क्या तू उस अन्तर्यामी को जानता है ! जिस करके यह दृश्यमान लोक अपने कारण सहित और सव भूत जो उसमें विराजमान हैं अथित हो रहे हैं ? काप्य पतञ्जल ने कहा हे पूज्यपाद, भगवन् ! मैं उसको नहीं जानता हूँ। जब गन्धर्व ने अपने दोनों प्रश्नों का उत्तर नहीं पाया, तब उसने काप्य पतञ्चल और यज्ञशास्त्र के अध्ययन करनेवाले हम लोगों से
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