अध्याय ३ ब्राह्मण ७ ३४१ अन्तरिक्षम्, अन्तरः, यमयति, एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। याजो। अन्तरिक्षेत्र श्राकाश में । तिष्ठन्-स्थित है।+च और । + यःजो । अन्तरिक्षात्-प्राकाश के । अन्तर:वाहर है। यम्-जिसको । अन्तरिक्षम्ग्राकाश । नन्नहीं । वेद जानता है । यस्य:जिसका । शरीरम्-शरीर । अन्तरिक्षम् अाकाश है। यःमो । अन्तर:-श्राकाश में रहकर । अन्त- रिक्षम्-आकाश को । यमयति-नियमवद्ध करता है। एपः वही। तेन्तेरा । अमृताम्यविनाशी । आत्मा-प्रात्मा । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। हे गौतम ! जो अन्तरिक्ष में रहता है, और जो अन्त- रिक्ष के बाहर स्थित है, जिसको अन्तरिक्ष नहीं जानता है, और जो अन्तरिक्ष को जानता है, जिसका शरीर अन्तरिक्ष है, और जो अन्तरिक्ष के बाहर भीतर स्थित होकर अन्त- रिक्ष को शासन करता है, और जो आपका अविनाशी आत्मा है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ ६ ॥ . यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरो यमयत्येप त आत्माऽन्तर्या- म्यमृतः ॥ पदच्छेदः। यः, वायौ, तिष्ठन् , वायोः, अन्तरः; यम्, वायुः, न, .
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