३४२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० . वेद, यस्य, वायुः, शरीरम्, य:, वायुम् , अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। यःजो । चायोगयु में । तिष्टन-स्थित । + यःजो। वायोः घायु के अन्तरः बाहर है। यम्-जिसको । बायुः चायु । न-नहीं । वेद-जानना है । यस्य-जिग्यहा । शरीरम: शरार । चायुगायु है। यानो। अन्तर:-प्रायु में अभ्यन्तर रहकर । बायुम्नायु को । यमयनि-मियमय करना है। एप: वही । तेरा । अमृता-प्रविनाशी । यात्मापारमा । अन्तर्यामीअन्तर्यामी है। भावार्थ। जो वायु के बाहर भीतर रहता है, जिसको वायु नहीं जानता है, और जो वायु को जानता है, जिसका वायु शरीर है, जो वायु के भीतर बाहर रहकर वायु को शासन करता है, जो आपका अविनाशी निर्विकार प्रात्मा है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ ७॥ मन्त्र: यो दिवि तिष्ठन्दिवोऽन्तरो यं यौन वेद यस्य यौः शरीरं यो दिवमन्तरोयमयत्येपतआत्माऽन्तयाम्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, दिवि, तिष्ठन् , दिवः, अन्तरः, यम् , द्यौः, न, वेद, यस्य, यौः, शरीरम् , यः; दिवम्.. अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ .. ,
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